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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी

अभियुक्त
[ २ ]
सफाई की पेशीका दिन आया। आज तो अदालत में दर्शकों की भीड़ के कारण तिलभर भी जगह खाली न थी। प्रत्येक चेहरेपर उत्सुकता छायी थी। कौन जाने क्या होता है ! "कहीं बिचारी की चेन भी छिने, और जेल भी भेजी जाय। “यह न्यायालय तो केवल न्याय के ढोंग के लिए ही होते हैं," न्यायके नामसे सरासर अन्याय होता है;" "अदालतें धनवानों की ही हैं, गरीबों की नहीं;" इस प्रकार की अनेक आलोचनाएं कानाफूसी के रूप में दर्शकों के मुंह से निकल रही थीं । अन्त में मजिस्ट्रेट की आवाज से अदालत में निस्तब्धता छा गयी। उन्होंने अभियुक्ता से पूछा-

"क्या तुम इस बात का सबूत दे सकती हो कि यह चेन तुम्हारी है ?"
"जी हां।"
"क्या सबूत है ? तुम्हारे कोई गवाह हैं ?"
"मेरा सबूत और गवाह वही चेन है,"--अभियुक्ता ने चेन की ओर इशारा करते हुए कहा।
सबने संदेह-सूचक सिर हिलाया। कुछ ने सोचा शायद यह लड़की पागल हो गयी है।
मजिस्ट्रेट ने पूछा- "वह कैसे?" अब उनकी दिलचस्पी और बढ़ गयी थी।
"चेन मेरे हाथ में दीजिये, मैं आप को बतला दूंगी।"

मजिस्ट्रेट के इशारे से कोर्ट साहब ने चेन उठा कर अभियुक्ता के हाथ में दे दी। चेन दो-लड़ी थी और उसके बीच में एक हृदय के आकार का छोटा-सा लाकेट लगा था, जो ऊपर से देखने में ठोस मालूम पडता था; परन्तु अभियुक्ता ने उसे इस तरह दबाया कि वह खुल गया। उसे खोलकर उसने मजिस्ट्रेट साहब को दिखलाया, फिर बोली-
"यही मेरा सबूत है, यह मेरे पिता की तसवीर है।"

मजिस्ट्रेट ने उत्सुकता से वह लाकेट अपने हाथ में लेकर देखा- देखा, और देखते ही रह गए । लाकेट के अन्दर एक २० वर्ष के युवक का फोटा था। मजिस्ट्रेट ने उसे देखा उनकी दृष्टि के सामने से अतीत का एक धुंधलासा चित्रपट फिर गया।

बीस वर्ष पहले वह कालेज में बी० ए० फाइनल में पढ़ते थे। उनके मेस की महराजिन बुढ़िया थी, इसलिए कभी-कभी उनकी नातिन भी रोटी बनाने आ जाया करती थी। उसका बनाया हुआ भोजन बहुत मधुर होता था। वह थी भी बड़ी हंसमुख और भोली। धीरे-धीरे वह उसे अच्छी अच्छी चीजें देने लगे। छिप छिपकर मिलना-जुलना भी आरम्भ हुआ । वह रात के समय बुढ़िया महराजिन और उसकी नातिन को उसके घर तक पहुँचाने भी जाने लगे। एक रात को वह लड़की अकेली थी। चाँदनी रात थी और वसन्ती हवा भी चल रही थी । घने वृक्षों के नीचे अन्धकार और चांदनी के टुकडे आँख-मिचौनी खेल रहे थे। वहीं कहीं एकान्त स्थान में उन्होंने अपने आपको खो दिया।

कालेज बन्द हुआ, और बिदाई का समय आया। उस रोती हुई प्रेयसी को उन्होंने एक सोने की चेन मय फोटोवाले लाकेट के अपनी यादगार में दी। सिसक्यिों और हृदय-स्पन्दन के साथ बड़ी कठिनाई से वह विदा हुए । यह उनका अन्तिम मिलन था। उसके बाद वह उस कालेजमें पढ़ने के लिए नहीं गये, क्योंकि वहां ला क्लास नहीं था। वह धीरे-धीरे उन सब बातों को स्वप्न की तरह भूल गये। किन्तु, आज इस लाकेट ने उनके उस प्रणय के परिणाम को उनके सामने प्रत्यक्ष लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने सोचा "तो क्या यह मेरी ही".........इतने में लाकेट उनके हाथ से छूटकर टेबल पर खटसे गिर पड़ा; उसकी आवाजसे वह चौंक-से पड़े। दर्शक भी चौंक उठे। मजिस्ट्रेट ने सिर नीचा किये हुए कहा - अभियुक्ता निर्दोष है, उसे जाने दो।" यह कहते हुए वह तुरन्त उठकर खड़े हो गये। जैसे न्यायाधीश की कुर्सी ने उन्हें काट खाया हो।

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